गरीबी के कुचक्र में मेहनतकश
आज मैं एक खबर पढ़ रहा था जिसमें किसी वैश्विक संस्था का हवाला देते हुये भारत के मेहनतकशों के गरीबी के कुचक्र में फंसने की आशंका व्यक्त की गई है।
मेरा आकलन है कि यह मात्र आशंका नहीं बल्कि हकीकत है और देश के मेहनतकशों का बड़ा तबका गरीबी के कुचक्र में फंस चुका है।देश के मजदूर आर्थिक तौर पर चार दशक पीछे चले गए हैं।यह सच है कि विपदा या महामारी किसी को उसके आर्थिक स्थिति के अनुसार नहीं चुनती पर ये भी सच है कि यह हमेशा गरीबों व मजदूरों पर भारी पड़ती है।कोरोना की वैश्विक महामारी ने भी ऐसा ही दुष्प्रभाव भारत के मेहनतकशों पर भी डाला है और इसके परिणाम दूरगामी हैं।महामारी की वजह से आननफानन में शुरू हुये अनियोजित लॉकडाउन ने देश के मेहनतकशों के बड़े तबके को न सिर्फ बेरोजगार कर दिया अपितु उन्हें गरीबी के कुचक्र में धकेल दिया है।जो लोग अपनी नौकरी या रोजगार गंवा कर अपने घरों में बैठे हैं उनके परिवार की पेट की आग ठंडी नहीं हो सकती,उनकी न्यूनतम बुनियादी जरूरतें खत्म नहीं हो सकती।इन जरूरतों को पूरा करने के लिए किये गए सरकारी प्रयासों की असफलता के कई नमूने हम देख चुके हैं।सरकार द्वारा घोषित आर्थिक पैकेज में भी मेहनतकशों से ज्यादा उद्योगपतियों की चिंता की गई है।जितना इन मेहनतकशों के लिये आबंटित हुआ है उसका कितना अंश इन तक पहुँचेगा यह भी सर्वविदित है।अब अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिये पुनः ये महाजनों व सूदखोरों के जाल में फसेंगे।एक बार फंस गए तो फिर इनकी पूरी एक पीढ़ी या तो बंधुआ मजदूर बन जाएंगे।अगर दो चार महीने के बाद स्थिति सामान्य हो भी गयी और इनमें से कुछ सौभाग्यशाली लोग अपनी नौकरी पाने या रोजगार बहाल करने में सफल हो भी गए तो इनकी पूरी जिंदगी ब्याज भरने में ही बीत जाएगी।
दरअसल यह स्थिति सिर्फ कोरोना की महामारी की वजह से पैदा नहीं हुई है।देश के मजदूरों के हक पर सेंधमारी की भूमिका तो नब्बे के दशक में तत्कालीन नरसिम्हा राव की सरकार ने ही तय कर दी थी जब उन्होंने आर्थिक सुधारों से सम्बंधित वैश्विक व्यापार समझौते पर दस्तखत किये थे।तब से लेकर लगातार देश में श्रमिकों के हितों पर चोट करने व उनके हक को छिनने की लगातार कोशिशें जारी थी।बाद की सरकारों ने मजबूत मजदूर यूनियनों के प्रतिरोध की वजह से ऐसा करने की हिम्मत नहीं दिखाई।नीतिगत तौर पर देश की नीति धीरे धीरे पूंजी परस्त व मजदूर विरोधी बनती रही।देश के दो मजबूत राजनीतिक दलों ने सरकार व विपक्ष में रहते हुये इन नीतियों का पक्ष या विरोध जरूर किया लेकिन संसद में ये दोनों ही दल मजदूरों के खिलाफ ही दिखे।
स्थिति में बड़ा बदलाव 2014 में एक मजबूत प्रधानमंत्री व पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद हुआ।सत्ता पक्ष की मजदूर यूनियनों के अवसरवादी रवैय्ये और मुख्यधारा की मजबूत समाजवादी विचारधारा वाली ट्रेड यूनियनों खिलाफ एक खतरनाक साजिश रची गयी।राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक उभार ने वाम ट्रेड यूनियनों के वैचारिक प्रभाव व धार को धीरे धीरे कमजोर कर दिया।अपनी संख्याबल और मजदूरों के बीच अपनी पैठ के बल पर इन यूनियनों ने कड़ा प्रतिरोध किया। 2019 के पहले सत्ता की पिट्ठू बन चुकी बी एम एस के सहयोग के बिना भी देश में ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मोर्च ने मजबूत आंदोलन किये। सरकार ने इस प्रतिरोध की वजह से 2019 के चुनाव के परिणाम आने से पहले श्रम कानूनों में बदलाव की अपनी कोशिशों को थोड़ा धीमा रखा।हालांकि उद्योग के दबाव में चुनाव से पहले श्रम कानूनों में संशोधन से सम्बंधित श्रम संहिता को सदन में प्रस्तुत जरूर कर दिया पर श्रमिक संगठनों के दबाव की वजह से इसे संसदीय समिति को रेफर कर दिया गया।
इसके पूर्व धीरे धीरे मेहनतकशों को आर्थिक व कानूनी तौर पर कमजोर करने की व इनके आंदोलन को अवसरवादी व राजनीतिक साजिश बताने की कोशिश भी जारी रही।मेहनतकशों के आर्थिक हितों पर बड़ा प्रहार नोटबन्दी ने भी किया और GST की वजह से छोटे उद्योग व व्यवसाय के आर्थिक हितों पर नियंत्रण लाने की कोशिशों का दुष्प्रभाव मेहनतकशों के आर्थिक हित पर अवश्य हुआ।
अब रही सही कसर कोरोना की महामारी ने पूरी कर दी। मैनेजमेंट गुरुओं की द्वारा दी जाने वाली वक्तव्य में एक बात बहुत प्रचलित व लोकप्रिय है कि "See Change as an Opportunity" मतलब "बदलाव या विपत्ति में भी अवसर ढूंढों"कोरोना वायरस के भारत में प्रवेश व आरम्भिक दिनों में एहतियातन बरती गई सावधानियों की बात छोड़ दें तो गुरुओं द्वारा कही गयी बातें सच साबित हुईं हैं। लॉक डाउन के प्रथम चरण के उपरांत उद्योगपतियों व सरकार दोनों ने इस विपदा को अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की खतरनाक योजना पर अमल करना शुरू कर दिया।देशी व विदेशी पूंजीपतियों के निर्देशों के मुताबिक केंद्र की सह पर राज्य सरकारों ने अमल करना शुरू कर दिया दशकों पूर्व मेहनतकशों की शहादत के बाद हासिल किये गए 8 घण्टे के काम के अधिकार को एक झटके में मुलतवी कर दिया गया।मोदी जी की मजदूरों व कर्मचारियों को नौकरी से न निकाले जाने व वेतनादि न काटे जाने की आरम्भिक अपील का भी उद्योग जगत पर कोई असर नहीं हुआ।खुद केंद्र सरकार द्वारा अपने कर्मियों के मंहगाई भत्तों की वृद्धि पर 2022 तक रोक लगाए जाने के फैसले ने उनकी उद्योगजगत से की गई अपील को एक और जुमला साबित कर दिया।उम्मीदों की आखिरी किरण बचे न्यायपालिका ने भी आखिर मजदूर संगठन व नियोक्ताओं के बीच समझौते की बात कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया और एक तरह से नियोक्ताओं की मनमानी पर मुहर लगा दी।
पूरे परिप्रेक्ष्य के आकलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महामारी के नाम पर अब मेहनतकशों के हित, सुविधा व हक पर प्रहार की पूरी तैयारी हो चुकी है।आर्थिक पैकेज हो या प्रवासियों को उनके गृह राज्य में ही रोजगार के अवसर प्रदान करने की घोषणा व उनके अमल की नीयत में तालमेल नहीं दिखता।
इधर पिछले 6 वर्षों में सरकार,सत्ता पक्ष व उनके सहस्र मुखी अनुसांगिक संगठनों के प्रचार ने देश के मेहनतकशों को भी विभाजित कर दिया है।छद्म राष्ट्रवाद के ज्वार व साम्प्रदायिक उभार ने मजदूरों के वर्गीय चेतना की न्यूनतम समझदारी को भी कुंद बना दिया है।देश का बेरोजगार, भूखा मजदूर भी प्रतिरोध के बजाय हजारों मील की पैदल यात्रा कर घर पहुँचना ज्यादा मुफीद समझता है।मेहनतकशों की कष्टप्रद पैदल यात्रा को बेवकूफी व सुटकेश पर सोये बच्चे को खिंचती हुई उनकी माता की दुश्वारियों को जॉय राइड कहने वालों पर भी उन्हें या देश के सम्भ्रांत लोगों को गुस्सा नहीं आता।
कुल मिलाकर शासक वर्ग को यह पता है कि इन्हें फिर से ठगा जा सकता है क्योंकि जब इनकी कई पीढ़ियों ने अपनी गरीबी को ईश्वर/खुदा/गॉड का अभिशाप मानकर सहन कर लिया तो फिर एक पीढ़ी को ठगने और भरमाने के लिये बस एक जुमला ही काफी होगा।बस इन्तजार कीजिये दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में गढ़े जा रहे किसी नए जुमले का जो आपको भाए, मन को थोड़ा बहलाये, ताकि एक और चुनाव में आप इन्हें अपार बहुमत के साथ सत्तानशीन कर दें।
जय हिंद
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